उठकर HRUDAY के खुले पत्र पर
नील नभ के
निलय मेँ लेटी हुई एक यौवना
लेती
अँग़ड़ाई कुछ उच्छृँखल, कुछ अनमना
नटखट नयन
कभी निमीलित कभी खोलकर
निहारती
लुकछिप, कभी
लज्जा को छोड़कर
बिखेर रही
प्रकाश, मुख पर
ला स्मित-रेखा
केशोँ को
बिखेर फिर, कर
देती घना अँधेरा
छोड़ती नयन-बाण, संधान कर वह हृदय पर
मदाँध कर
देता जो, गिर हृत-प्रसून-पत्र
पर
तंद्रा
छोडकर ले करवट उठ बैठती है यौवना
ज्यूँ
बरसने को आतुर हो तममय मेघ घना
अंग-अंग
ठुमकता न्यौछावर होने को मित्र पर
बरसाती प्रीति
उठकर हृदय के खुले पत्र पर
-महेश चंद्र द्विवेदी
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