सोमवार, 16 सितंबर 2013

Chirjajwalya

      चिरजाज्वल्य

दुर्ग-  
प्रायः ध्वस्त मिलते हैं,
समय की मार से शिकस्त मिलते हैं;
उनकी उन्नत-भाल प्राचीरों
ध्वस्त भवनों, परास्त परकोटों
को देखकर उनकी भव्यता, प्राचीनता
और आज मानव की
उनके प्रति तटस्थता
का अनुमान तो लग जाता है,
पर उनके द्वारा जिये उल्लास, वीरता, एवं त्याग
उनके द्वारा सहे घृणित षड़यंत्रों के घाव एवं अवसाद
की अनुभूति नहीं होती है.
अवस्था, आकार अथवा शृंगार से उनके गुरुत्व
अथवा लघुत्व की प्रतीति नहीं होती हैं.


पर्यटक-
प्रायः दुर्ग का क्षत-विक्षत
अथवा सुगढ़, स्वस्थ शरीर देखकर,
गाइडके मुख से
उसके स्थापत्य का सत्य-असत्य वर्णन सुनकर
समझने लगते हैं कि
वे दुर्ग को जानते हैं;
उसकी सुंदर, सामान्य,
अथवा कुरूप छवि को पहिचानते हैं.
परंतु प्रत्येक दुर्ग की एक आत्मा होती है,
वह क्या थी, कैसी थी?
यह कम ही जानते हैं.


मैं-
राजपूताना के दुर्ग देखने
रेलगाड़ी से गया था;
अरावली पर्वत श्रंखला की
लगभग हर चोटी पर कोई दुर्ग
अथवा कोई मंदिर देखकर
अचरज से भरा था.
उनमें से मंदिर तो अधिकांश रंगे-पुते थे
किसी किसी के शिर पर
पताका भी लहराती थी
परंतु अधिकतर दुर्ग लुटे पिटे थे
उनके बिन मुंह खोले ही
पराभव की गूंज आती थी.


फिर-
देखे जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर के
महल और हवामहल,
जिनमें कुछ बना दिये गये हैं
आज पंचसितारा होटल.
उनकी भव्यता में प्रायः छिपी दिखी
उनके राजाओं के स्वार्थ एवं
पारस्परिक वैमनस्य की गंध.
हाँ, आज हो चुके ध्वस्त
पर खड़े गर्वोन्नत
चित्तौड़गढ़ से होकर
आने वाली वायु में अवश्य मिली
त्याग एवं वीरता की सुगंध.

चित्तौड़-
दुर्ग के कण-कण में
एक आभा चमकती थी
राणा प्रताप के शौर्य की दामिनी
आज भी दमकती थी.
भामाशाह के त्याग में भरी थी
राष्ट्रप्रेम की गाथा,
मीरा की भक्ति में निखरी थी
आत्मिक प्रेम की अभिलाषा.
पन्ना धाय के बलिदान से
स्वामिभक्ति की गंगा बहती थी,
राणियों के जौहर में
स्वप्रतिष्ठा की
चिरजाज्वल्य लौ जलती थी.